गुरुवार, 3 अक्तूबर 2019

BANGAL KA DURGA PUJA

                    बंगाल का दुर्गापूजा

              नवरात्री का त्यौहार साल में दो बार बसंत में बासंती और क्वांर में शारदीय। नौ दिन देवी का अलग -अलग रूप में मनाया जाता है। बंगाल में क्वांर में शारदीय नवरात्री में दुर्गापूजा बहुत ही धूम -धाम से मनाया जाता है। दुर्गा जी को बेटी माना जाता है। इसलिए बंगाल उनका मायका हुआ। जमशेदपुर बंगाल बार्डर के पास होने के कारण बंगालियों की संख्या भी यहाँ बहुत ही अधिक है। इसलिए यहाँ बंगाली रीत-रिवाज से पूजा मनाया जाता है। माँ के स्वागत के लिये बहुत ही सुन्दर और बड़ा पंडाल सब जगह बनाया जाता है।
    मान्यता ये है की दुर्गा जी महिषासुर का बध करके अपने पुरे परिवार के साथ 9 दिन के लिये मायका आती है। इसलिए बंगाली पंडालों में दुर्गा प्रतीमा के साथ कार्तिक ,गणेश ,लक्ष्मी और सरस्वती आदि की भी मूर्ती होती है। वे देवी के बेटा -बेटी माने जाते है। साथ ही गणेश जी की पत्नी भी होती है। कार्तिक जी जेष्ठ है इसलिए गणेश जी की पत्नी सबसे किनारे केले के गाँछ को साड़ी से लपेट कर घूँघट में रखा जाता है। इसलिए गणेश जी की पत्नी को कोला (केला)बहु कहा जाता है।जेष्ठ के सामने बहु कैसे रहेगी इसलिए घूँघट किया जाता है।
     दुर्गा पूजा अमावस्या के दिन घरों में घट रख कर शुरू किया जाता है। पर पूजा पंडालों में प्रतीमा षष्ठी के दिन स्थापित कर पूजा  शुरू किया जाता है। अष्टमी और नवमी के संधिकाल में 108 दीपक जला कर पूजा का विधान है। दशमी के दिन नीले रंग का फूल(अपराजिता ) और उसके पत्ते से पूजा होता है। दसवें  दिन मूर्ती विसर्जन के पहले देवी प्रतिमा के सामने एक बड़े परात में जल रखा जाता है ,और उसमे एक दर्पण रखा जाता है।महिलाएं  दर्पण में माँ का चरण का प्रतिबिम्ब को स्पर्श करके आशीर्वाद लेती  है। फिर माँ को मिठाई खिला कर सिन्दूर लगाती है। महिलाये आपस में फिर एक दूसरे को सिन्दूर लगाती है इसे सिन्दूर खेला बोला जाता है।
    जिस प्रकार बंगाल में बहन -बेटी को मछली -भात खिला कर बिदा किया जाता है ,वैसे ही माँ को भी मछली -भात खिला कर बिदा किया जाता है और प्रसाद के रूप में बांटा जाता है। वैसे सप्तमी ,अष्टमी और नवमी तीनो दिन स्पेशल खिचड़ी का भोग लगता है और लोग खिचड़ी का प्रसाद प्राप्त करते हे। दुर्गापूजा में छेने से बनी मिठाई ,सन्देश ,मीहीदाना इत्यादी तो जरूर ही रहता है। प्रतिमा विसर्जन के बाद नीलकंठ पक्छी उड़ाया जाता है।मान्यता ये है की नीलकंठ पक्छी उड़ कर कैलाश पर्वत पहुँचकर भगवान शिव जी को माँ के मायका से रवानगी का सन्देश देते है। विसर्जन के बाद शांति जल लाया जाता है। फिर एक दूसरे से मिल कर विजया दशमी का पर्व मनाते है।







  

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